महाराणा प्रताप: मेवाड़ का वीर सपूत

महाराणा प्रताप का नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा है। वीरता, त्याग और स्वाभिमान के प्रतीक महाराणा प्रताप ने मुगल बादशाह अकबर के साम्राज्यवादी विस्तार के विरुद्ध एक लंबा और अविस्मरणीय संघर्ष किया। आइए, जानते हैं उनके जीवन की गाथा को थोड़ा और विस्तार से –

जन्म और प्रारंभिक जीवन

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को राजस्थान के मेवाड़ में हुआ था। उनके पिता महाराणा उदय सिंह द्वितीय और माता जयवंताबाई सोनीगरा थीं। बचपन से ही प्रताप शक्तिशाली, साहसी और युद्ध कौशल में निपुण थे। शिक्षा के साथ-साथ उन्हें युद्ध-विद्या, घुड़सवारी और शस्त्र संचालन का कठोर प्रशिक्षण दिया गया। युवावस्था में प्रताप शिकार और घुड़दौड़ में भी अव्वल थे।

चित्तौड़ का पतन और प्रताप का संघर्ष

सन 1567 में अकबर की विशाल सेना ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। राजपूत वीरों ने अदम्य साहस के साथ मुगल सेना का मुकाबला किया। किंतु युद्ध में विजय मुगलों को मिली और चित्तौड़ दुर्ग में जौहर और साका हुआ। इस घटना ने महाराणा प्रताप को गहरे आघात पहुंचाया। उनके पिता उदय सिंह द्वितीय युद्ध से बच निकले और उन्होंने गुरिल्ला युद्ध नीति अपनाते हुए मेवाड़ की रक्षा का बीड़ा उठाया।

उदय सिंह के निधन के पश्चात सन 1576 में महाराणा प्रताप मेवाड़ के सिंहासन पर विराजमान हुए। उनकी महत्वाकांक्षा खोए हुए गौरव को पुनः प्राप्त करना और मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा करना था।

अकबर के साथ संघर्ष

अकबर ने मेवाड़ को अपने साम्राज्य में मिलाने के लिए कई प्रयास किए। उसने प्रताप को अधीनता स्वीकार करने के लिए कई दूत भेजे, किंतु महाराणा प्रताप ने स्वतंत्रता के लिए किसी भी प्रकार का समझौता करने से इनकार कर दिया। उनका प्रसिद्ध कथन था- “भला हम सिर कटा देंगे, पर सिर झुकाएंगे नहीं!”

अकबर ने जब राजनीतिक प्रयास विफल होते देखे तो उसने सैन्य बल का प्रयोग किया। सन 1582 में दिवेर का युद्ध हुआ जिसमें महाराणा प्रताप ने मुगल सेना को कड़ी टक्कर दी। यद्यपि युद्ध में उन्हें हार का सामना करना पड़ा, किंतु उनकी वीरता और रणनीति ने मुगलों को भी प्रभावित किया।

गुरिल्ला युद्ध और कठिनाइयां

दिवेर के युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के दुर्गों को छोड़कर गुरिल्ला युद्ध अपनाई। वे जंगलों और पहाड़ियों में रहते हुए मुगलों पर छापामार हमले करते थे। उनकी वफादार सेना और भील जनजाति का समर्थन उनके संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा।

यह दौर महाराणा प्रताप के लिए अत्यंत कठिन था। उन्हें जंगलों में रहना पड़ता था। भोजन और संसाधनों की कमी रहती थी। कई बार तो उन्हें घोड़ों के चारे तक के लिए भी मजबूर होना पड़ता था। किंतु इन कठिनाइयों के बावजूद उनका हौसला कभी नहीं टूटा।

अमर वीरता के प्रतीक – चेतक और राणा

महाराणा प्रताप के शौर्य गाथा में उनके वफादार घोड़े चेतक का भी महत्वपूर्ण स्थान है। चेतक युद्ध में प्रताप के साथी ही नहीं बल्कि उनकी शक्ति का प्रतीक भी था। हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक ने अदम्य साहस का परिचय दिया और घायल महाराणा प्रताप को युद्धभूमि से सुरक्षित निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

हल्दीघाटी का युद्ध (Battle of Haldighati)

सन 1576 में हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मान सिंह सिसोदिया कर रहे थे। यह युद्ध इतिहास में शौर्य और पराक्रम का अविस्मरणीय उदाहरण है। राजपूत वीरों ने मुगल सेना से कई गुना अधिक संख्या होने के बावजूद अदम्य साहस दिखाया। युद्ध में महाराणा प्रताप ने अपने शौर्य से मुगल सेना को परेशान कर दिया। घमासान युद्ध के दौरान चेतक बुरी तरह घायल हो गया। चेतक ने अंतिम क्षणों में भी महाराणा प्रताप को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया और स्वयं प्राण त्याग दिए।

हल्दीघाटी का युद्ध निर्णायक न हो सका, किंतु इस युद्ध ने मुगलों को यह स्पष्ट कर दिया कि मेवाड़ को जीतना आसान नहीं होगा।

अंतिम समय

हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात भी महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी। वे गुरिल्ला युद्ध जारी रखे। उन्होंने मुगलों को मेवाड़ में कभी भी स्थायी रूप से बसने नहीं दिया। अपने अंतिम समय तक वे स्वतंत्रता की ज्वाला को जगाए रखे। सन 1597 में उनका निधन हो गया।

महत्वपूर्ण योगदान

महाराणा प्रताप भले ही मेवाड़ को पूर्ण रूप से मुगलों से मुक्त नहीं करा पाए, किंतु उन्होंने मुगल साम्राज्य के विस्तार को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने अन्य राजपूत राजाओं को भी प्रेरित किया और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए संघर्ष करने का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी वीरता और त्याग की कहानी सदियों से भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखी है।

स्मरणीय विरासत

आज भी महाराणा प्रताप को स्वतंत्रता, स्वाभिमान और वीरता का प्रतीक माना जाता है। उनकी वीरता की गाथा लोकगीतों और कहानियों में जीवंत है। मेवाड़ में स्थित कुंभलगढ़ दुर्ग उनकी वीरता का साक्षी है। महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास में एक ऐसे शासक के रूप में विख्यात हैं जिन्होंने सिद्धांतों के लिए जीवन समर्पित कर दिया।

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